नारी पूजक देश में स्त्री का अपमान!!

एक स्त्री जिसे इस नारी पूजक देश मे लगातार अपमानित किया गया।

ये पोस्ट राजनीतिक नही है केवल सोनिया गांधी को एक स्त्री के नज़रिये से देखने की कोशिश है ।सोनिया गांधी के जीवन पर आप नजर डालें तो उनका पूरा जीवन एक त्रासदी से कम नही है।वर्षों से वो केवल एक अदद मां बन कर रह गयी है ।शादी के कुछ साल बाद ही मां जैसी सास का गोलियों से छलनी शरीर जिसकी गोद मे आ जाए, टुकड़ो में जिसने पति की लाश देखी हो उसकी पीड़ा को क्या कोई महसूस कर सकता है ?

आख़िर सोनिया -राजीव ने ऐसा क्या पाप किया?

एक दूसरे से प्रेम किया, विवाह किया और विवाह के इतने वर्षों बाद भी भारतीय बहू के सारे धर्म ये स्त्री निभा रही है , लेकिन आपने उसे क्या दिया अपमान और तिरस्कार ।विवाह के बाद एक स्त्री की पहचान उसकी ससुराल से होती है यही है न ?
आपकी भारतीय संस्कृति?

फिर इस मामले में आपकी संस्कृति इतनी दोमुंही कैसे हो जाती है?

किस मुंह से आप वासुधेव कुटुम्बकम का ढोंग करते जब अपने ही देश की उस बहू को आप आजतक नही अपना पाए जिसने अपनी पूरी उम्र आपके देश मे गुज़ार दी।सुषमा स्वराज एक स्त्री ही थीं लेकिन एक स्त्री होकर सोनिया के विदेशी मूल का जो बार-बार उन्होंने ज़िक्र किया वो उनकी गरिमा के ख़िलाफ़ था। उस स्त्री ने आपके देश को अपनाया,आपकी भाषा सीखी,मॉडर्न परिवेश में पली स्त्री के सर से आज भी किसी रैली में पल्लू नही गिरता और आपने उसे क्या दिया ?

सोनिया इटली की वेश्या थी(सुब्रमनियम स्वामी),सोनिया जरसी गाय है(मोदी),सोनिया विदेशी नस्ल की है इसलिए देशभक्त पैदा नही कर सकती(कैलाश), वगैरा-वगैरा।

आप खुद को हिन्दू कहते हो? बोलते हो कि हमारे यहां स्त्री की पूजा होती है कितने धूर्त और मक्कार हो आप।अब अगर मैं पलट के पूंछू की सोनिया तो सालों से बहू का धर्म निभा रही लेकिन हिन्दू हृदय सम्राट ने अपनी शादी के 7 वचन निभाये?चुनाव नही होता तो देश जान ही नही पाता कि इनका विवाह भी हुआ है।आप अपनी घृणा से बाहर आइये तो सोनिया गांधी में आपको एक असली पारंपरिक भारतीय स्त्री की छवि दिखेगी।अपने पति के हत्यारो को माफ़ करने का कलेजा एक भारतीय स्त्री में ही हो सकता।पूर्ण बहुमत की सरकार में भी न ख़ुद पीएम बनी न राहुल को बनाया क्यो ,कौन उन्हें रोक सकता था?
इतना अपमान और तिरस्कार सह कर भी कभी पलट के अमर्यादित टिप्पणी नही की।एक उदाहरण देता हूँ राजीव गांधी की लाश जब मद्रास लाई गई,जब सोनिया दिल्ली से मद्रास आयी तो उन्होंने दो ताबूत देखे एक राजीव गांधी का था जिस पर फूल चढ़े थे दूसरा उनके अंगरक्षक का था जिस पर कुछ नही था ।उस दुख की घड़ी में भी उन्हें इतना याद रहा कि तुरंत उन्होंने एक अधिकारी को बुलाया और कहा कि उस पर भी फूल चढ़ाओ उन्होंने मेरे पति के लिए जान दी है।क्षमा,दया,करुणा जो भारतीय स्त्री के आभूषण है उसमे से क्या उनके पास नही है?लेकिन फिर भी उनका अपमान और तिरस्कार शीर्ष के नेता से लेकर व्हाट्सअप्प यूनिवर्सिटी के जाहिल तक करते रहे।आलोचना के लिए राजनीतिक बातें है लेकिन राजनीति का क्या इतना पतन हो गया है कि आप एक स्त्री की गरिमा को ही भूल गए। ये प्रज्ञा ठाकुर,साध्वी प्राची,पूजा शकुन पर गर्व कर सकते लेकिन सोनिया गांधी को अपमानित करेंगे।दरसल सोनिया ने तो भारतीय संस्कृति निभाई लेकिन तुम लोगो ने दिखाया कि तुम अपने मूल में कितने कट्टर,जातिवादी,रंगभेदी,नस्लभेदी हो, तुम कितने धूर्त हो,संस्कृति की खोल में छुपे सबसे अश्लील समाज हो ।

बड़े समाजसेवी के अंदर का ब्राह्मणी जातिवाद का नमूना यह रहा!

उनके ‘ब्रह्मजन सुपर-100’ खोलने/खुलवाने के ऐलान पर मुझे ज्यादा अचरज नहीं हुआ! अचरज की बात ये है कि बहुजन इस विराट सच की कैसे अनदेखी करता है कि उसके वोट से चुनी सरकारें किस तरह ‘ऐसे अनेक लोगों’ को तीस-पैंतीस साल निर्णयकारी शासकीय पदों पर बिठाकर रखती हैं! चलो मान लिया कि अशिक्षा और नासमझी के चलते आम गरीबों और साधारण लोगों का बड़ा हिस्सा इस यथार्थ को नहीं समझ पाता! पर इस वर्ग या समाज के शिक्षित-समझदार लोग, ख़ासकर राजनीतिक तत्व क्या करते हैं? उत्पीड़ित समाज के लोगों को वे क्यों नहीं समझाते?

सच तो ये है कि ऐसे ‘राजनीतिक तत्व’ अपने निजी-पारिवारिक और निहित स्वार्थ से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं! इसलिए आज के इस नंगे और निरंकुश मनुवादी-अंधड़ के लिए संसदीय राजनीति का बहुजन-नेतृत्व कम जिम्मेदार नहीं है! यूपी और बिहार के नेता सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जहां तीन दशक पहले जबर्दस्त जनजागरण का आगाज़ हुआ था! पर कैसी विडम्बना है, ये दोनों बड़े सूबे आज ‘मनुवादी हिंदुत्वा’ की निरंकुश राजनीति के सबसे बड़े अड्डे बन गए हैं!

इस सच्चाई पर उत्पीड़ित समाज के कितने नेताओं की नजर है कि पिछले कुछ वर्षों से भारतीय नौकरशाही पर संपूर्ण वर्चस्व का एक बहुत संगठित और योजनाबद्ध प्रोजेक्ट चल रहा है! इस प्रोजेक्ट को काफी सफलता मिल रही है! जिस तरह टीवी-मीडिया में एक खास सोच और मिज़ाज के लोग जड़ जमा चुके हैं, ठीक उसी तरह कुछ समय बाद भारतीय नौकरशाही और एकेडमिक्स में भी उग्र मनुवादी-आग्रहों और विचारों के लोग छा जायेंगे! आरक्षण के प्रावधानों के लगातार कुंद किये जाने, क्रीमीलेयर का दायरा बढ़ाने, कथित आर्थिक-पिछडेपन आधारित नये आरक्षण-नियमों, उच्च शिक्षा और कोचिंग आदि के बेहद खर्चीला होते जाने से नौकरशाही में दलित-आदिवासी-ओबीसी और (अन्य समुदायों के भी) तरक्कीपसंद लोगों की संख्या और कम होती जायेगी!

आप इस भयावह तस्वीर की कल्पना कीजिए, जो जल्दी ही असलियत बनने वाली है! आजादी के पहले और उसके बाद हमारी नौकरशाही कभी सुसंगत और समावेशी नहीं रही! पर उसके चरित्र में और ज्यादा नकारात्मक बदलाव होने जा रहे हैं! ‘हिन्दुत्वा-राष्ट्र’ के लिए नये ढंग की नौकरशाही भी तो चाहिए!

हम बोलेंगे तो बोलेगा कि बोलता है….!

एक सज्जन का कहना है कि भूमिहारों के बाद यादव सबसे बड़े जातिवादी हैं। उनके ज्ञान से घनघोर असमति है। बिहार की राजनीति का एक बड़ा और लंबा दौर कांग्रेस के शासन में बिहारवासियों ने देखा।

कांग्रेस में सीएम पद के लिए राजपूत और भूमिहार खेमा खुलकर क्रमश: अनुग्रह नारायण सिन्हा तथा श्री कृष्ण सिंह के पीछे गोलबंद हो जाता था। उस दौर के किस्सा कहानियों में बहुत कुछ दर्ज है।

बिहार में जातीय चेतना सबसे पहले किस्में आई? जातीय हितों की रक्षा के लिये सबसे पहले कायस्थों ने जातीय संगठन (कायस्थ महासभा ) बनाया फिर ब्राहण महासभा, ब्रह्षि महासभा (भूमिहार) , क्षत्रीय महासभा, यादव महासभा, लव-कुश यानी कुरी कोरी बिरादरी की जातीय सभा। जातीय गोलबंदी के शीर्ष सोपान पर कौन बिराजमान है? इस नजरिया से कायस्थ सबसे बड़े जातिवादी हुये।

इसी से जुड़ा आलेख प्रभात खबर के दीपावली विशेषांक पत्रिका के 1993 अंक में प्रकाशित हुआ था। जो बिहार की समाजार्थिकी व अन्य पहलू पर रौशनी डालता है। यह आलेख दिवंगत अशोक सिन्हा जी का लिखा है। बिहार की सरकारी नौकरियों ( राजपत्रित/ अराजपत्रित) में जातीय भागीदारी का सरकारी डेटा भी उन्होंने दिया है।

बहरहाल, ऐसे महानुभवों से यही कहना है कि वे इस वहम से बाहर निकलें। जो पावर में आता है वह अपनी बिरादरी वालों, शुभ चिंतकों, हितैषियों को पद/ ओहदा देता है। यह नई बात नहीं है। नेहरू के समय में ब्राहणों का रूतबा किसी से छुपा है? इंदिरा युग या राजीव युग में भी।

यही बात मुलायम-मायावती -लालू प्रसाद के बारे में भी कही जा सकती है। पिछड़ों-दलित अफसरों को आगे किया। जिन पदों पर वे कभी बैठ नहीं सकते थे, उन पदों को शुशोभित किया। मोदी सरकार के कितने सचिव या प्रमुख ओबीसी/दलित हैं। नग्नय।

महंत आदित्यनाथ क्या यूपी में ठाकुरवाद नहीं कर रहे हैं? जिले के अफसरों, पुलिस पदाधिकारी की सूची बताने के लिये कम है क्या? सत्ता का अपना चरित्र होता है, लेकिन भारत जैसे पिछड़े समाज में जाति ही सत्ता की धुरी है। इसे विलगाकर गोबर पट्टी में कोई सत्तारूढ़ नहीं हो सकता। अकादमी उच्च शिक्षा के अंदर भी जातिवाद है। बहस लंबी हो जायेगी। प्रगतिशीलता के तकाजे पर ऐसी सोच रखने वालों की बात खरी नहीं उतरी। हम बोलेंगे तो बबूला कि बोलता है…!

मूलतः यही ब्राह्मणवाद है जो छुपकर हर जगह घुसा रहता है, चाहे वह प्रशासन हो,न्यायपालिका और मीडिया हो या राजनीति किसी को समझ नहीं आ रहा है, इसके लिए जनांदोलन क्यों नहीं बन रहा है/खड़ा हो रहा है। जिसको मारकर पूर्ण ब्राह्मणवाद के जुमले और झूठे हिंदुत्व ने सब कुछ तहस नहस कर दिया है ?

जिन्हें हम अशिक्षित या कम शिक्षित समझते हैं, वे तमाम चीजें समझते हैं। नहीं समझते हैं,तो वे जो डिग्रीधारी है, सूटबूट में चमकते हैं, जिनके पेट भरे हुए हैं। दरअसल, यह तबका बहुत बड़ा धूर्त है। इसे समाज से नहीं,जाति या वर्ग से भी नहीं, केवल और केवल खुद से मतलब रहती है। यह तबका बड़ी आसानी से बेझिझक किसी के भी पायताने बैठ जाता है। अपने मामुली या बड़े कार्य के लिए तलवे भी चाटने में इसे कोई झेंप नहीं होती। ये इतने लालची होते हैं कि इन्हें जूठन भी मिल जाए तो गदगद हो जाते हैं। इसलिए, ऐसे लोगों के बारे में कुछ भी कहना अपना समय जाया करना है।

ब्राह्मण अपना चरित्र कैसे बदलता है? जानिए!!

ब्राह्मण जब विद्रोही दिखना चाहता है तो कम्युनिस्ट रुझान दिखाता है और क्रांति के गुण गाता है।

ब्राह्मण जब उत्पाती और बौचट होता है तो संघी हो जाता है और भाजपा की शरण में लोटता है।

ब्राह्मण जब मजबूर होता है तो सपाई और बसपाई हो जाता है और समाजवाद व बहुजन हिताय के गुण गाता है

और ब्राह्मण जब लिबरल व काइयां होता है तो कांग्रेसी हो जाता है और नेहरू नहीं ‘पंडित नेहरू ‘ के गुण गाता है।

आजकल ये दौर फिर से आता दिख रहा है।

खैर.. इन सबमें कॉमन क्या है ?नहीं पता.यही कि ब्राह्मण अपना ब्राह्मण होना किसी भी सूरत में नहीं छोड़ता।

– प्रद्युम्न यादव ,

वरिष्ठ ब्राह्मण चिंतक

राकेश सिन्हा जैसे झुट्ठा लोग राज्य सभा में क्यों हैं?

यह आदमी ‘मिस इन्फॉर्मेशन’ की खान है.

राकेश सिन्हा ने अभी राज्य सभा में बहस के दौरान संविधान सभा के गठन के बारे में अजीब सी टिप्पणी की- ” कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इन्डिया ने सत्रह अलग-अलग संविधान सभाओं के गठन का प्रस्ताव रखा था. ये लोग विभाजनकारी थे, मीर जाफ़र और जयचंद जैसे.”

राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं. उन्हें मालूम होना चाहिए, ‘ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ के संस्थापक सदस्य मानबेन्द्र नाथ रॉय M.N. Roy ने 1934 में एक संविधान सभा के गठन का प्रस्ताव सबसे पहले दिया था. न कि सत्रह अलग-अलग.
उसी प्रस्ताव को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1935 में बिना किसी संशोधन के पार्टी की आधिकारिक मांग के रूप में रखा, जिसे 1940 में ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया था.

राकेश सिन्हा जैसे लोग न सिर्फ़ संसद को गुमराह कर रहे हैं, बल्कि आज़ादी के इतिहास को सिर के बल खड़ा करने का कुप्रयास कर रहे हैं.

Pushp Ranjan

माली और ब्राह्मण के बीच संघर्ष का विजेता कौन!! आप तय कीजिए!!

फुले और तिलक के बीच कड़ा संघर्ष

क्यों…?

माली जाति के जोतीराव फुले((11 अप्रैल 1827, मृत्यु – 28 नवम्बर 1890)और

चितपावन ब्राहमण बाल गंगाधर तिलक(23 जुलाई 1856 – 1 अगस्त 1920)के बीच

तीखा संघर्ष क्यों होता रहा ?

दोनों के बीच संघर्ष के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे

मुद्दा नंबर 1-

तिलक का मानना था की…जाति पर भारतीय समाज की बुनियाद टिकी है, जाति की समाप्ति का अर्थ है, भारतीय समाज की बुनियाद को तोड़ देना, साथ ही राष्ट्र और राष्ट्रीयता को तो़ड़ना है।

इसके बरक्स फुले….जाति को असमानता की बुनियाद मानते थे और इसे समाप्त करने का संघर्ष कर रहे थे।

तिलक ने…फुले को राष्ट्रद्रोही कहा, क्योंकि वे राष्ट्र की बुनियाद जाति व्यवस्था को तोड़ना चाहते थे।( मराठा, 24 अगस्त 1884, पृ.1, संपादक-तिलक )

मुद्दा नंबर – 2

तिलक ने…प्राथमिक शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य बनाने के फुले के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया।

उन्होंने कहा कि… कुनबी ( शूद्र) समाज के बच्चों को इतिहास, भूगोल और गणित पढ़ने की क्या जरूरत है, उन्हें अपने परंपरागत जातीय पेशे को अपनाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा उच्च जातियों के लिए ही उचित है।( मराठा, पृ. 2-3 )

मुद्दा नंबर – 3

तिलक का कहना था कि…सार्वजनिक धन से नगरपालिका को सबको शिक्षा देने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह धन करदाताओं का है, और शूद्र-अतिशूद्र कर नहीं देते हैं।( मराठा, 1881, पृ. 1 )

मुद्दा नंबर – 4

तिलक ने… महार और मातंग जैसी अछूत जातियों के स्कूलों में प्रवेश का सख्त विरोध किया और कहा कि केवल उन जातियों का स्कूलों में प्रवेश होना चाहिए, जिन्हें प्रकृति ने इस लायक बनाया है यानी उच्च जातियां (Bhattacharya, Educating the Nation, Document no. 49, p. 125.)

मुद्दा नंबर – 5

तिलक ने…लड़कियों को शिक्षित करने का तीखा प्रतिरोध और प्रतिवाद किया और लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना के विरोेध में संघर्ष चलाया।( “Educating Women and Non-Brahmins as ‘Loss of Nationality’: Bal Gangadhar Tilak and the Nationalist Agenda in Maharashtra”).

मुद्दा नंबर – 6

जब….

फुले के प्रस्ताव और निरंतर संघ्रर्ष के बाद ब्रिटिश सरकार किसानों को थोड़ी राहत देने के लिए सूदखोरों के ब्याज और जमींदारों के लगान में थोड़ी कटौती कर दी, तो तिलक ने इसका तीखा विरोध किया।

हम सभी जानते हैं कि….फुले ने 1848 में अछूत बच्चों के लिए स्कूल खोल दिया था और 3 जुलाई 1857 को लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोला।

लोकमान्य कहे जाने वाले…बाल गंगाधर तिलक से जोतिराव फुले एवं शाहू जी का संघर्ष.. और

महात्मा कहे जाने वाले गांधी से डॉ. आंबेडकर के संघर्ष का इतिहास वास्तव मे…उच्च जातीय वर्चस्व आधारित राष्ट्रवाद के खिलाफ शूद्रों-अतिशूद्रों का जातिविहीन समता आधारित समाज का संघर्ष है।

~~ सिद्धार्थ रामु

JNU और IIT&IIM

JNU बनाम IIT-IIM

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JNU छात्रों के आन्दोलन के बीच कुछ लोग IIT-IIM का जिक्र लेकर आ गये हैं कि वहां की फीस तो JNU के मुकाबले कई सौ गुना अधिक है, फिर भी वे लोग आन्दोलन नहीं करते। वे लोग क्यों आन्दोलन नहीं करते यह बात बाद में, पहले यह कहना चाहूंगा कि उन लोगों को भी विरोध और आन्दोलन करना ही चाहिये, क्योंकि फीस की जो मौजूदा व्यवस्था है उसमें अब मजदूर तबके से आने वाला कोई भी बच्चा बिना कर्ज लिये पढ़ाई नहीं कर सकता।

हमारे जमाने तक IIT की फीस इतनी कम हुआ करती थी कि हमें समझाया जाता था, बस कम्पिटीशन निकाल लेना है, फिर तो जीवन सेट। अब इसी IIT से पासआउट बच्चे रेलवे के फोर्थ ग्रेड की नौकरी तलाश रहे हैं।

IIT और IIM की फीस तब बढ़ी जब देश में बाजारवाद उफान पर पहुँच गया और माना जाने लगा कि यह पढ़ाई नहीं, एक तरह का इनवेस्टमेंट है। बच्चों पर पैसे लगाईये और उसका कैरियर सेट। जब यहां से पास करने वाला बच्चा प्लेसमेंट में ही लाखों के पैकेज हासिल कर लेगा तो आप क्यों नहीं कुछ लाख रुपये का इनवेस्टमेंट कर सकते हैं। तो फिर गरीब अभिभावक भी कर्ज लेकर मोटी फीस चुकाने लगे, फिर स्टूडेंट लोन का भी कांसेप्ट आ गया।

आप समझ लीजिये कि जिस रोज स्टूडेंट लोन का कांसेप्ट आया था, उसी रोज से शिक्षा के बाजारीकरण कज शुरुआत हो चुकी थी। फिर धड़ाधड़ प्राइवेट इंजीनियरिंग और मैडिकल collage खुलने लगे। आपके बच्चे में मेरिट नहीं है, कोई बात नहीं, आपके पास पैसे हैं न। बच्चे को इन्जीनियर या डॉक्टर जो चाहे बना लीजिये। अब तो डाक्टरी पढ़ने में एक करोड़ से अधिक का खर्चा आ रहा है। रूस और चीन के मेडिकल कॉलेज यहां आकर प्रचार कर रहे हैं कि हम तो सस्ते में पढ़ा देंगे, हमारे पास आ जाईये।

इधर प्राइवेट कॉलेजों के फीस स्ट्रक्चर को दिखा कर सरकार कहती है कि हम ही क्यों सस्ते में पढायें। लिहाजा सरकारी हो या प्राइवेट, उच्च शिक्षा कमोबेस इनवेस्टमेंट बन कर रह गयी है। अब जिनके पास पैसे हैं, वे बच्चों को इन्जीनियर डॉक्टर बनायेंगे। जो गरीब हैं, वे बीए एमए करके 10-15 हजार की नौकरी करेंगे। या फिर 50 लाख का स्टूडेंट लोन लेकर दस साल कर्ज उतारते रहेंगे।

तो समझिये कि IIT-IIM में पढ़ रहे बच्चों के माता-पिता ने अपने बच्चों के करियर में इन्वेस्टमेंट कर रखा है और इन्वेस्टर कभी भी विद्रोह नहीं करता। उसका काम अपने इनवेस्टमेंट से रिटर्न हासिल करना है और जो विद्रोह करता है, उसका कैरियर अनिश्चित हो जाता है। इसलिये अगर कोई IIT-IIM वाला सोच भी ले कि आन्दोलन करना है, उसके माता पिता झट से निर्देश जारी कर देते हैं, चुपचाप पढ़ाई पर ध्यान दो। याद नहीं कि हमने तुम पर कितना इन्वेस्ट किया है। हालांकि इतने प्रेशर के बावजूद IIT-IIM के बच्चे विद्रोह नहीं करते होंगे यह लगता नहीं। युवा मन कब इन चीजों को मानता है, हां कम करते होंगे।

हमने तो नवोदय जैसे स्कूल में भी आन्दोलन किया था, जहां सब कुछ मुफ्त है। पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी में मोटा इन्वेस्टमेंट करने का अफसोस आज भी है|

मगर जो युवा मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार कर दिये गये हैं कि उनके मां बाप उन पर लाखों का इनवेस्टमेंट कर रहे हैं, वे जरूर आन्दोलन का रिस्क उठाने में कतराएंगे। उन्हें तो येन केन प्रकारेन इनवेस्टमेंट के बदले में मुनाफा कमाना है। हालांकि लाखों की फीस उन्हें या उनके मां बाप को चुभती नहीं होगी, ऐसा सोचना गलत है। मगर उनके दिमाग में यह बात बिठा दी जाती होगी कि कोई नहीं, अभी पैसा लगाओ, बाद में बच्चा कई गुना रिटर्न लाएगा। सो वे चुप रह जाते होंगे। खूब मेहनत करके पैसे कमाते होंगे और बच्चों की फीस में सब खर्च कर देते होंगे।

धीरे धीरे हर भारतीय की कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई लिखाई में खर्च होने लगा है। खास कर प्लस टू के बाद। लोग बाग खास तौर पर इसके लिए पैसा जमा करते हैं। पहले कोचिंग की फीस, फिर संस्थानों की फीस। एक बच्चा अगर साधारण स्तर की उच्च शिक्षा भी हासिल करे तो 10 से 15 लाख खर्च हो जाता है। होस्टल का तो कंसेप्ट ही खत्म हो रहा है। हर बड़े शहर में छात्रों के लिए प्राइवेट लौज और पीजी की भरमार है। अब तो बैंक इसके लिए फ्यूचर प्लान भी लेकर आ गये हैं।

मगर इस इन्वेस्टमेंट का नतीजा क्या है? लड़कों के मामले में मां बाप पहले तो भरपूर दहेज वसूलते हैं कि हमने अपने बेटे को इतना खर्च करके क्या इसी लिए पढ़ाया? फिर अगर बच्चे की सरकारी नौकरी लग गयी तो वह भ्रष्टाचार करने लगता है, इनवेस्टमेंट का अधिक से अधिक रिटर्न चाहिये। प्राइवेट नौकरी मिली तो कम्पनी के लिए बेइमानी करता है, सौ तरह के धतकर्म करता है कि जल्दी से आगे बढ़े। मेडिकल प्रोफेशनल अपना रिटर्न कैसे हासिल करते हैं यह किसी से छिपा नहीं। कुल मिलाकर शिक्षा का यह बाजारीकरन एक डरपोक, अवसरवादी और भ्रष्ट समाज पैदा करता है। हमें बेइमानी का रास्ता दिखाता है।

अगर संक्षेप में कहें तो आज के दौर में IIT और IIM एक अवसरवादी नौकर तैयार करने की फैक्टरी बन गयी है, इसलिये वहां विरोध और आन्दोलन कम होते हैं, जबकि JNU अभी भी एक सचेतन नागरिक तैयार करने का केन्द्र हैं इसलिये वहां के छात्रों में गलत को समझने और उनका विरोध करने का विवेक बचा है। जबकि सरकार पूरे देश से स्वविवेकी नागरिकों को खत्म कर, लोगों को अवसरवादी नौकर में बदल देना चाहती है। विवि की फीस वृद्धि इसी का नमूना है।

संजीव कमल

सोशल मीडिया से प्राप्त लेख

कुर्मियों की कमाई सामंतवादी सवर्णों ने खाई- लौटन राम निषाद!

कुर्मियों से हिंदुत्व की खेती करवायी गयी और अब सामंतवादी सवर्ण फसल काट रहे हैं।

कुछ कुर्मी सिर्फ इसलिए खुश हैं कि मोदी ने सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा 3600 करोड़ में व शिवाजी की मुम्बई में 2500 करोड़ की मूर्ति लगवा दी।

आइये समझते हैं-

जब भाजपा का कोई राजनैतिक व सामाजिक आधार नहीं था, तब हिंदुत्व की अलख जगाने का ठेका कुर्मियों के पास था व सवर्ण और सामंतवादी ताकतें कांग्रेस के बड़े व छोटे नेताओं के रूप में राजनैतिक मलाई उड़ा रहीं थी।

1- केशुभाई पटेल गुजरात में भाजपा के प्रभावशाली नेता थे।कुर्मियों व अन्य पिछड़ों के व्यापक जन समर्थन से भाजपा की राजनीति को राज्य की बुलंदियों तक पहुँचाया।

बाद में संघियों के कुटिल दिमाग ने कट्टर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के द्वारा केशूभाई पटेल की राजनैतिक हत्या करवाई।

2- गुजराती कुर्मी प्रवीण तोगड़िया विश्व हिंदू परिषद के फायर ब्रांड नेता थे। उनके बिना भाजपा को हिंदुओं का ब्यापक जन समर्थन असम्भव था। जब 2014 में पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आयी, तब प्रवीण तोगड़िया को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया गया।

3- विनय कटियार यूपी में हिंदुत्व और भाजपा का फायरब्रांड चेहरा हुआ करते थे, राम मंदिर आंदोलन से लेकर भाजपा को पिछड़ों में ब्यापक जनाधार के कुशल कारीगर। आज विनय कटियार की यूपी भाजपा में बहुत दयनीय स्थिति है।

4- ओम प्रकाश सिंह भाजपा यूपी में कुर्मियों और पिछड़ों के कद्दावर नेता थे और भाजपा सरकार में उनका प्रभावशाली कद था, लेकिन फिर पिछड़ा होने के कारण ओम प्रकाश सिंह जी को बड़ी सफाई से किनारे लगा दिया गया।

5- संतोष गंगवार जी 8 बार के सांसद को आज तक भाजपा ने कभी भी भारत सरकार में कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय या कैबिनेट में दर्जा नहीं दिया, क्यों कि वह संघ की सामंतवादी मानसिकता के लिये उपयुक्त ब्यक्ति नहीं हैं।

6- हार्दिक पटेल, जिन कुर्मियों के दम पर भाजपा ने गुजरात मे कांग्रेस के किले को ढहा कर सत्ता पर कब्ज़ा जमाया, बाद में उन्ही को ठिकाने लगाया और यह सिलसिला वर्तमान तक जारी है।मोदी व शाह की जोड़ी ने हार्दिक को चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिलवा दिया।

7- छत्तीसगढ़ से रमेश बैस जी, जो कुर्मी हैं और 7 बार से सांसद थे, 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका भी टिकट काट दी गयी।

8- उन्नाव जिले में भाजपा के कद्दावर नेता,पूर्व विधायक एडवोकेट बाबू कृपाशंकर सिंह जी को भी भाजपा व सामंती जातिवादी हृदयनारायण दीक्षित ने बहुत सफाई से किनारे लगा दिया, क्योंकि उन्होंने भी सामंतवादी ताकतों के आगे कभी समर्पण नही किया,और पिछडो व दलितों की लड़ाई में सामंतवादी मानसिकता वाले गुंडों से हमेशा मोर्चा लेते रहे।

9.पंकज चौधरी 6वीं बार भाजपा के टिकट पर महाराजगंज से सांसद हैं,जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया।

अब सबसे चिंतित करने वाली बात यह है कि अपनी मेहनत व बुद्धि के दम पर सिर्फ अपने परिवार का ही नहीं,बल्कि देश का पेट भरने वाली कौम क्या सिर्फ धर्म और हिंदुत्व के नाम पर अपनी ही कौम का,पिछड़ों का शोषण,अधिकार हनन करवाती रहेगी? आखिर कब तक?

आज भाजपा में हर प्रभावशाली जगहों पर उन्ही सामंती सवर्णो का कब्जा है, जिनके परिवार और बाप-दादा कभी कांग्रेसी हुआ करते थे और सत्ता की मलाई उड़ाते थे।

वैसे देखा जाय तो सामाजिक न्याय के जनक छत्रपति साहूजी महाराज के वंशज कुर्मी भाजपा के बंधुआ मजदूर बन सामाजिक न्याय के खलनायक बने हुए हैं।

कुर्मी जाति ब्राह्मण से भी कट्टरपंथी भाजपाई बन अपनी कौम व ओबीसी के पैर में कुल्हाड़ी मार रहा है।ऐसा लगता है यही कौम भाजपा की ठीकेदार है।

स्वतंत्रदेव सिंह इस समय भाजपा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष व मुकुट बिहारी वर्मा कैबिनेट मंत्री तथा अपना दल(एस) की राष्ट्रीय अध्यक्ष व भाजपा की सहयोगी हैं।इलाहाबाद में पिंटू पटेल व आशीष पटेल की सवर्णों ने दौड़ाकर गोली मारकर हत्या कर दिया।

बाँदा में एक कुर्मी को सामंती ठाकुरों ने चप्पलों पर थूक कर चटवाया।पर,उत्तर प्रदेश के 7 कुर्मी सांसद व 24 भाजपा विधायक जमीर बेचकर नपुंसक व गुलाम बन गूंगा-बहरा बने हुए हैं।

मण्डल का विरोध प्रवीण तोगड़िया,विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह,प्रेमलता कटियार, रामकुमार वर्मा,पंकज चौधरी, सन्तोष गंगवार आदि कूर्मियों ने कमण्डलधारियों के इशारे पर कहीं सवर्णों से अधिक किया और इनके बाद लोधी समाज के कल्याण सिंह, उमा भारती,साक्षी महाराज आदि ने हिंदुत्व का झंडा ऊँचा किया।

योगी राज में पिछड़ों व दलितों का शोषण-उत्पीड़न व अधिकार हनन हो रहा है,पर कुर्मी बेखबर हैं।

लोधी समाज का ज़मीर जाग रहा है।

चौ.लौटनराम निषाद

चुपचाप वर्ग हर काम करता है चुपचाप- मनोज यादव(RVCP)

चुपचाप वर्ग

अपने समाज मे एक वर्ग पैदा हो रहा है, चुपचाप वर्ग।।
जो हर काम चुपचाप करता है।।
जाति प्रमाणपत्र बनाया, वो भी चुपचाप।।

स्कूल कॉलेज में
आरक्षण से दाखिल लिया, चुपचाप।।

पूरी शिक्षा के दौरान , छात्रवृत्ति हजम कर गया चुपचाप।।

आरक्षण से सरकारी नौकरियों में अप्लाई कीया, एक दम चुपचाप।।

आरक्षण से नौकरी ली, वो भी चुपचाप।।

हजारो-लाखो की तनख्वाह को निगल रहा है, चुपचाप।।

समाज के सारे लाभ लिए,घर बसाया एक दम चुपचाप।।

वैसे तो लोगो मे शानोशौकत बहुत है, समाज को देने के नाम से एक दम चुपचाप।।।

आनेवाली पीढियो को ज्ञान दिया कि चुपचाप रहो, सब हजम करते रहो।।।

समाज का सत्यानाश करने वाले ये चुपचाप लोग, समाज के दीमक है जो सब कुछ चुपचाप खोखला कर रहे है, समाज का सबकुछ खा कर एक दम चुपचाप है।।। ऐसे लोग पर धिक्कार है, जो सिर्फ समाज की खाना जानते है, देना कुछ नही।।

ये चुपचाप लोग स्वार्थ से परिपूर्ण होते है, जो समाज के कभी हुए नही ।
अपने परिवार को भी चुपचाप तबाह करके, चुपचाप कही चले जाते है।।।

वो कौन हिन्दू है?

हिंदू कौन है ???

अपनी औरत को जुए मे हारने वाले ??? या अपनी औरत की अग्नि परीक्षा लेने वाले ?????

औरतों को देवदासी बनाने वाले ??? या औरत को सती प्रथा के नाम पर जिंदा जलाने वाले????

औरतों के विधवा होने पर सर गंजा करके बनारस छोड़ कर आने वाले ???? या बेटी को मां की कोख में ही मार देने वाले ?????

मेरे दोस्त आखिर यह “”हिंदू”” हैं कौन

हिंदुओं को S C से समस्या है !
हिंदुओं को S T से समस्या है !
हिंदुओं को ओबीसी से समस्या है !
हिंदुओं को सिखो से समस्या है !
हिंदुओं को मुसलमानों से समस्या है !
हिंदुओं को ईसाईयों से समस्या है!
हिंदुओं को महिलाओं से समस्या है !
हिंदुओं को लिंगायत से समस्या है !
हिंदुओं को एससी, एसटी ,ओबीसी आरक्षण से समस्या है !
हिंदुओं को गुर्जर आरक्षण से समस्या है !
हिंदुओं को जाट आरक्षण से समस्या है !

आखिर यह “”हिंदू”” हैं कौन जिन्हें भारतीय संविधान से भी समस्या है !
मेरे दोस्त यह हिंदू है कौन जिन्हें भारत के बहुजन मूल निवासियों से इतनी समस्याएं है,

आप लोग बताइए आखिर “”हिंदू”” हैं कौन ??
कडवा है मगर सच है

मनोज़ यादव

RVCP

आरक्षण को खत्म करने का योगी फार्मूला जानो- मनोज यादव(RVCP)

आरक्षण हटाने का एक और खेल।

सन् 2018 में योगीजी द्वारा 65000 शिक्षकों की भर्ती में शुरु किए गये इस खेल को अब हर परीक्षा में अपनाया जा रहा है। ताकि अनारक्षित की कुछ सीटें खाली रखकर आपकी अधिकांश या सभी सीटों को खाली रखा जा सके, और अगली भर्ती में उन सभी को 50-50 करके अनरक्षित वर्ग को लाभ पहुचाया जा सके।उदाहरण: 65000 शिक्षक भर्ती में लगभग 29000 सीटें खाली रखी गयी। अब 65000 मे से अनारक्षित वर्ग की 33000 हजार सीटों में से मात्र 2477 सीटें जान-बूझकर खाली रखी गयी ताकि SC/ST/OBC की लगभग 26500 सीटें खाली रखी जा सकें। और अगली भर्ती मे इन सीटों को समायोजित करके फिर से 50-50 कर लिया गया। इस तरह से अनारक्षित वर्ग को 2477 के बदले लगभग 13250 सीटें आरक्षण में बिना किसी हस्तक्षेप और फेरबदल किए ही हासिल हो गयी। और अनारक्षित वर्ग को लगभग 10000 सीटों का शुद्ध फायदा मिल गया। और 65000 शिक्षक भर्ती में एक भी आरक्षित सीट को अनारक्षित अभ्यर्थी से भर देते तो पूरे देश में बवाल मच जाता, पर देखिए कि योगी सरकार ने कितनी चालाकी से योग्य अभ्यर्थी ना मिलने का हवाला देकर आपकी सीटें हड़प लीं। हालांकि ब्राम्हण बुद्धि का यह खेल बहुत पुराना है, पर यह खेल पहले सिर्फ बड़ी नौकरियों के लिए खेला जाता था जैसे प्रोफेसर, नियंत्रक, महालेखापरीक्षक, मंत्रालय सचिव आदि में। लेकिन अब यह खेल छोटी नौकरियों में भी शुरु हो गया है। आप सोंचिए कि जब लगभग हर एक साक्षात्कार वाली भर्तियों में अनारक्षित वर्ग को कम मेरिट पर बुलाया जा रहा हो और SC/ST/OBC की मेरिट उनसे अधिक हो तो कोई कैसे यकीन करे कि योग्य अभ्यर्थी ही नहीं मिले। चाहे UPHESC, UPPSC, NEET या अन्य कोई भर्ती हो, आप सभी में देख सकते हैं कि अनारक्षित वर्ग की कालिंग मेरिट SC/ST/OBC से कम ही रहती है।योगीजी ऐसा खेल खेलेंगे तभी तो रामराज्य का सपना साकार होगा।

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